हर लम्हा-ए-मौजूद के इम्कान से पहले इक मैं ही यक़ीनी था तिरे ज्ञान से पहले होती है जो अब रात तो हो मेरी बला से मैं डूब गया रात के एलान से पहले बस छू के पलट आता हूँ उस बाग़-ए-बदन को पड़ता है ज़रा रूह के ज़िंदान से पहले तारीक सराबों की चका-चौंद में गुम-सुम था सख़्त मुसलमान मैं ईमान से पहले आती है सदा कुन की तो कहता हूँ कि ज़मज़म कुछ मशवरा कर हज़रत-ए-इंसान से पहले