हर मज़हब बे-रूह जसद है जज़्बे की क़ल्लाशी है राख के तूदे पूजते हैं ये का'बा है वो काशी है अर्श की क़ील-ओ-क़ाल सुनी अफ़्साना-ए-वज्द-ओ-हाल सुना ज़ेहन की वो अय्याशी है और रूह की ये अय्याशी है दिल मुर्दा मफ़्लूज हैं रूहें कौन जले और कौन जलाए इस ठंडे माहौल में बेजा शौक़ की अख़गर-पाशी है हाल दिल-ए-आशुफ़्ता का ऐ दैर-ओ-हरम क्या तुम से कहें वहशत हर दरबार से है सहरा की हाज़िर-बाशी है साने-ए-क़ुदरत तेरे क़लम का क्या कहना लेकिन ये बता नक़्श मिटाना नक़्श बनाना ये कैसी नक़्क़ाशी है अम्न-ओ-सुकूँ का ये वक़्फ़ा मरने का इफ़ाक़ा है 'रिज़वी' चेहरे पर तहज़ीब-ए-उमम के वक़्ती ये बश्शाशी है