हर नए चेहरे से पैदा इक नया चेहरा हुआ ताक़-ए-निस्याँ पर है कोई आइना रक्खा हुआ बे-वसीला इस जहाँ में मौत भी मुमकिन नहीं हीला-ए-दार-ओ-रसन भी है मिरा समझा हुआ ज़ख़्म गहरे कर रही है हर नए मिसरे की काट शे'र कहने से भी दिल का बोझ कब हल्का हुआ ज़िंदगी क्या जाने क्यूँ महसूस होता है मुझे तुझ से पहले भी हो जैसे ज़हर ये चक्खा हुआ हूक सी उठती है 'सहबा' आसमाँ को देख कर गर मैं शो'ला हूँ तो फिर क्यूँ ख़ाक से पैदा हुआ