मसअला हूँ मैं सदा से कम-निगाही के लिए कौन उट्ठेगा भला मेरी गवाही के लिए लौट आया फिर से वो तूफ़ान सहरा की तरफ़ शहर में बाक़ी न था कुछ भी तबाही के लिए आज भी मैं तेरी आँखों के जज़ीरों में पनाह ढूँढता फिरता हूँ अपनी बे-पनाही के लिए दिल के दरिया में मिरी यादों की गहराई तलक डूब के आएगा कौन अब ख़ैर-ख़्वाही के लिए बोलते रहने से ऐ 'शहज़ाद' कुछ हासिल नहीं ख़ामुशी दरकार है इस कज-कुलाही के लिए