हर नए मोड़ धूप का सहरा कारवाँ-साज़ रह गए तन्हा साया-ए-शाख़-ए-गुल से ना-मानूस वो कोई पालतू कबूतर था वो कोई रेशमी लिबास में थी मैं कोई फूल था जो मुरझाया चाँदनी चार दिन बहुत सोई पाँचवें दिन ख़ुमार टूट गया मछलियाँ ख़ुद-फ़रेब होती हैं इक मछेरे न तब्सिरा लिक्खा वापसी अब घरों में ना-मुम्किन दूर तक बे गुमान सन्नाटा आसमां सोच कर उड़ान भरी चार सम्तों से इक ख़ला उभरा कश्तियाँ साहिलों पे डूब चलीं वो खुले पानियों में कूद पड़ा रौशनी के हलीफ़ भुगतेंगे तीरगी की जबीन पर लिक्खा