हर पल तिरा ख़याल सुरूद-ए-ख़याल है सो चश्म-ए-तर भी आईना-ए-अक्स-ए-यार है उस हीला-जू की याद भी अब रफ़तनी हुई इक हिज्र रह गया है सो वो बे-शुमार है बे-ख़्वाब रतजगे कभी अश्कों के हैं चराग़ है रफ़्तगाँ का सोग दिल-ए-बे-क़रार है तर्क-ए-तअल्लुक़ात को गो मुद्दतें हुईं अब भी दिल-ए-तबाह मगर सोगवार है हफ़्त-आसमाँ भी लाख तिरा पर्दा-दार हो हर ज़र्रा काएनात का तिमसाल-दार है मौज-ए-तिलिस्म-ए-शौक़ फ़रेब-ए-गुमाँ सही क्या कीजिए कि दिल को तिरा ए'तिबार है कब रख सकी असीर-ए-ज़मान-ओ-मकाँ की क़ैद 'अंजुम' निगार-ए-ज़ीस्त तो मुश्त-ए-ग़ुबार है