गिरता रहा मैं राह में लेकिन सँभल गया मैं आज किस मक़ाम की जानिब निकल गया सोचा किया था राह ये आसान है मगर पहले क़दम पे पाँव मिरा क्यूँ फिसल गया अदना सा इक फ़रेब था बदला जो ये लिबास आफ़त तो तब पड़ी कि मैं जब ख़ुद बदल गया आँखें थी शर्मसार कहीं चैन भी नहीं उस के मगर ख़याल से ये दिल बहल गया हो गर ख़ता सज़ा का मुक़र्रर है एक दिन 'नाक़िद' ज़हे-नसीब कि वो वक़्त टल गया