हर रस्म पर नज़र को झुकाते हुए चले हर इख़्तियार अपना मिटाते हुए चले कुछ उन पे ए'तिमाद है कुछ अपनी ज़ात पर ज़ोम-ए-फ़रेब यूँही निभाते हुए चले कितनी हिकायतें कि ज़बाँ तक न आ सकीं ज़ंजीर-ए-हर्फ़ उन पे सजाते हुए चले उन के मज़ाक़-ए-दीद से पाई न पाई दाद फिर भी हरीम-ए-शौक़ बसाते हुए चले जो राह जल गई थी हक़ीक़त की आँच से ख़्वाबों के फूल उस पे बिछाते हुए चले