हर साँस इक हुजूम-ए-परेशाँ धुआँ का था अपना वजूद सानेहा जलते मकाँ का था इक जुर्म काँच का ही नहीं ख़ूँ रुलाने में कुछ हाथ कम-निगाही-ए-शीशा-गराँ का था पत्थर तो दुश्मनों ने भी फेंके हज़ार बार जो घाव लग सका वो फ़क़त दोस्ताँ का था जिस दाम पर भी माँगा ज़माने को दे दिया हर साँस कोई माल इक उठती दुकाँ का था जो तीर आज दिल में तराज़ू हुआ कभी छूटा हुआ वो दोस्तो अपनी कमाँ का था