मुसाफ़िरों का यहाँ से गुज़र नहीं है क्या तुम्हारे शहर में कोई शजर नहीं है क्या किसी भी वक़्त निगाहें ये फेर सकता है तुम्हें ज़माने की कुछ भी ख़बर नहीं है क्या जो तीरा-बख़्ती का कातिब मिला तो पूछूँगी मिरे नसीब में कोई सहर नहीं है क्या निकालते हो बहू को जो घर से नंगे सर तुम्हारे ज़ेहन में बेटी का घर नहीं है क्या खुरच के देखूँगी हाथों की सब लकीरों को वफ़ा निभाने का उन में हुनर नहीं है क्या तुम आइने से मुख़ातब हो आज-कल 'बिल्क़ीस' तुम्हारे घर में कोई भी बशर नहीं है क्या