हर शख़्स अपने आप में सहमा हुआ सा है देखो तो शहर सोचो तो वीरानियाँ बहुत लेटा हुआ पंगोड़े में तकता है आसमाँ लिक्खी हुई हैं आँखों में हैरानियाँ बहुत ज़ाईद-गान-ए-शब को गवारा नहीं सहर डसती हैं उन को सुब्ह की ताबानियाँ बहुत दें कैसे उस का हाथ ज़माने के हाथ में अब तक तो की हैं उस की निगहबानियाँ बहुत पल-भर ख़ुशी भी हम ने ग़नीमत शुमार की रहती हैं यूँ भी दिल को परेशानियाँ बहुत किन पत्थरों से हम ने तराशे हैं रोज़-ओ-शब काम आ गईं हमारी गराँ-जानियाँ बहुत