सूरज सा भी तारा हो ज़मीं सी भी ज़मीं हो मुमकिन है फ़लक पर कोई तुम सा भी हसीं हो तरदीद-ए-जहालत की सज़ा मौत है चुप हूँ अब कौन यहाँ खोल के लब मुंकिर-ए-दीं हो इस बात से काफ़िर को भी इंकार नहीं है वो शख़्स पयम्बर है जो सादिक़ हो अमीं हो सुनता हूँ कई दैर ओ कलीसा के फ़साने ऐ काश किसी बात का मुझ को भी यक़ीं हो उड़ता फिरूँ गर चर्ख़ पे हर रंज से आज़ाद यारब यही आलम मुझे फ़िरदौस-ए-बरीं हो बे-वजह भी देखा है परेशाँ तुम्हें 'हामिद' दीवाने भी लगते नहीं आशिक़ भी नहीं हो