हर शख़्स वफ़ा से हट चुका है शीशों पे ग़ुबार अट चुका है दिल-ता-ब-दिमाग़ फट चुका है ये शहर का शहर उलट चुका है चेहरों पे दमक कहाँ से आए सूरज का वक़ार घट चुका है रिश्तों में ख़ुलूस ही कहाँ था पहले भी ये दूध फट चुका है इज़हार-ए-ख़ुलूस करने वाला अंदर से बहुत पलट चुका है इतने भी उदास कब थे हम लोग ज़ाहिर है कि दिल सिमट चुका है तारीख़-ए-वफ़ा में क्या मिलेगा आँखों में जो वक़्त कट चुका है अब सामने भी वो आएँ तो क्या दिल अपनी तरफ़ पलट चुका है दिल है कि उसी की नज़्र 'अंजुम' जिस दर्द का भाव घट चुका है