हर शय जहाँ की गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-ख़याल है आशोब-गाह-ए-दहर में जीना मुहाल है ये गुलशन-ए-यक़ीं भी ब-जुज़ वहम कुछ नहीं आलम जिसे कहें वो तिलिस्म-ए-ख़याल है नैरंगी-ए-नज़र के सिवा और कुछ नहीं दूद-ए-फ़िराक़ जल्वा-ए-शाम-ए-विसाल है ये नग़्मा-ए-वजूद किसी रागनी की राख इक चीख़ साज़-ए-उम्र-ए-अबद का मआ'ल है हर मौज है कि हाथ से छुटती हुई इनाँ वो जस्त-ओ-ख़ेज़ है कि सँभलना मुहाल है तपते दिनों की आग में जीने की आरज़ू शबनम ब-रु-ए-गुल अरक़-ए-इंफ़िआ'ल है तन्हाइयों में बैठ के ख़ुद को शिकार कर ये दश्त-ए-दिल भी दश्त-ए-ख़ुतन की मिसाल है