हर सुकूत-ए-बेकराँ इज़हार से लबरेज़ है आइने की ख़ामुशी दर-अस्ल मा'नी-ख़ेज़ है पीछे मुड़ कर देखने की आरज़ू मत कीजिए ज़िंदगी वन वे ट्रैफ़िक है बहाओ तेज़ है फिर यहाँ मैं देर से पहुँचा हूँ और फिर सामने चंद बेवा कुर्सियाँ हैं एक ख़ाली मेज़ है इस क़दर हैरान क्यों हो आज मुझ को देख कर जिस ने तुम को हुस्न बख़्शा मेरा भी रंगरेज़ है लफ़्ज़ की ये सल्तनत ख़ाली नहीं इम्कान से शा'इरी का आइना कितना तमद्दुन-ख़ेज़ है सर उठाने पर तिरे सद-हैफ़ है 'ताहिर' कि जब हश्र तक तेरा इमाम-ए-‘इश्क़ सज्दा-रेज़ है