हर तरफ़ लौ है यहाँ पुरवाइयों में चल कहीं जल न जाए तेरे नाज़ुक जिस्म का संदल कहीं मुंतज़िर हैं धूप का तोहफ़ा लिए सब रास्ते आओ चल कर बैठ लें साए में पल दो पल कहीं गीत कुछ मद्धम सुरों में गाएँ मौजों से कहो हो न जाएँ सुब्ह तक माँझी के बाज़ू शल कहीं इतने लम्बे हैं समुंदर से यहाँ तक फ़ासले ऐसा लगता है कि थक कर रुक गए बादल कहीं यूँ नहीं आते कभी ये आँधियों के क़ाफ़िले रह गई होगी दरख़्तों में कोई कोपल कहीं आज की शब मुझ को सोना है हवाओं से कहो लोरियाँ गाती रहें बजता रहे पीपल कहीं देखिए 'काज़िम' ज़रा ये मौसमों की धूप छाँव हैं कहीं प्यासी ज़मीनें और है जल-थल कहीं