हर तरफ़ पर्दा-दार-ए-ज़ुल्मत है इक तबस्सुम की फिर ज़रूरत है ठहरी ठहरी है वक़्त की रफ़्तार आलम-ए-ग़ौर में मशिय्यत है है गुमाँ क्या यक़ीन का साया और यक़ीं वाहिमे की शिद्दत है इश्क़ भी ज़िंदगी की ल'अनत था अक़्ल भी ज़िंदगी की ल'अनत है ख़ुद-नुमाई में जो हिजाब रहे तीरगी उस की इक अलामत है शोर-ए-तहसीन-ए-नारवा से 'जमील' ये ख़मोशी बसा-ग़नीमत है