हर तरफ़ रात का फैला हुआ दरिया देखूँ किस तरफ़ जाऊँ कहाँ ठहरूँ कि चेहरा देखूँ किस जगह ठहरूँ कि माज़ी का सरापा देखूँ अपने क़दमों के निशाँ पर तिरा रस्ता देखूँ कब से मैं जाग रहा हूँ ये बताऊँ कैसे आँख लग जाए तो मुमकिन है सवेरा देखूँ ना-ख़ुदा ज़ात की पतवार सँभाले रखना जब हवा तेज़ चले ख़ुद को शिकस्ता देखूँ दिन जो ढल जाए तो फिर दर्द कोई जाग उठे शाम हो जाए तो फिर आप का रस्ता देखूँ अब ये आलम है कि तन्हाई ही तन्हाई है ये तमन्ना थी कभी ख़ुद को भी तन्हा देखूँ दीदा-ए-ख़्वाब को उम्मीद-ए-मुलाक़ात न दे किस तरह अपने ही ख़्वाबों को सिसकता देखूँ रंग धुल जाएँ ग़ुबार-ए-ग़म-ए-हस्ती के 'असर' अब के मंज़र कोई देखूँ तो अनोखा देखूँ