हर-चंद जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ लेकिन कहा हुआ का भी पूरा नहीं हुआ तुम एक गर्द-ए-बाद थे चकरा के रह गए हम से भी पार ज़ात का सहरा नहीं हुआ ख़ुशबू कहीं तो फूल हवा ले उड़ी कहीं यूँ मुंतशिर किसी का क़बीला नहीं हुआ सौ वसवसों की गर्द बरसती रही मगर दिल ऐसा आइना था कि मैला नहीं हुआ पत्थर थे हम सो दौलत-ए-एहसास मिल गई लुट कर भी कार-ए-दिल में ख़सारा नहीं हुआ गुज़रे दिनों का रूप थी इस रुत की धूप भी सो इस बरस भी ग़म का मुदावा नहीं हुआ लोगों पे खुल चुके थे मदारी के गुर 'नजीब' सो कोई भी असीर-ए-तमाशा नहीं हुआ