इक फरेरी जो तिरा ख़ाक-बसर लेता है थाम जिबरील-ए-अमीं अपना जिगर लेता है साथ अपने कोई असबाब-ए-सफ़र लेता है तो फ़क़ीर उस घड़ी सर ज़ानू पे धर लेता है छेड़-छाड़ अपने उड़ा कौन सके ऐ क़िबला बर्क़ से दाम कोई मुश्त-ए-शरर लेता है देखिए क्या हो चले जाओ मियाँ अपनी राह कौन याँ हम से ग़रीबों की ख़बर लेता है बाग़बाँ का ये नहीं जुर्म नसीब अपने कि वो छाँट कर सब में पकड़ मेरी कमर लेता है कोई सरकार जुनूँ की नहीं लाज़िम नाएब काम जितने हैं वो सब आप ही कर लेता है कह लिए क्यूँ न हो सब्ज़े कि सुख़न मेरा सीख दाया-ए-अब्र-ए-बहारी के हुनर लेता है सीना-ए-नख़्ल से आती है उबल दूध की धार खींच इस का जो कोई तिफ़्ल तबर लेता है होवे परलोक उदयभान तो लाला-घनशाम उन के फुकने के लिए मोल अगर लेता है नौनिहालान-ए-चमन को हो भला क्यूँकर चैन तोड़ गुल उन के कोई कोई समर लेता है उन की क़ाज़ें भी तराना ये सुना जाती हैं कि तबर लेता तबर लेता तबर लेता है इस ज़मीं में वो है इक बाग़ लगा ऐ 'इंशा' जो कि तूबा की भी चोटी को कुतर लेता है