हर्फ़-ओ-अल्फ़ाज़-ओ-म’आनी के हिजाबों में न थी बात चेहरों पर जो लिक्खी थी किताबों में न थी 'उम्र गुज़री अपने ही घर का बयाबाँ छानते दिलकशी इतनी तो चमकीले सराबों में न थी मैं था अपने 'अह्द की सच्चाइयों का वो सवाल जिस को रद करने की गुंजाइश जवाबों में न थी अब हुआ मा'लूम तेरे शहर से हिजरत के बा'द क्या ख़राबी थी जो हम ख़ाना-ख़राबों में न थी उँगलियों की ये जराहत ये क़लम की ख़स्तगी कब हमारी ज़िंदगी ऐसे ‘अज़ाबों में न थी कर रहा हूँ कारोबार-ए-शे'र में अपने को ख़र्च वर्ना ऐसी मद कोई घर के हिसाबों में न थी ये भी शे'री तजरबों का इक तसलसुल है 'फ़ज़ा' अब ग़ज़ल जैसी है वो कितनों के ख़्वाबों में न थी