हर्फ़-ए-हक़ मेरी ज़बाँ से जो निकल पड़ता है सामने वाले की पेशानी पे बल पड़ता है इन दिनों दिल का अजब हाल हुआ है हमदम बात बे-बात पे कम-बख़्त उछल पड़ता है वादा-ए-वस्ल है परसों का मगर याद रहे दरमियाँ अपनी मुलाक़ात के कल पड़ता है चाँद पर जाओ कि मिर्रीख़ पे पहुँचो लेकिन उस से आगे की न सोचो कि ज़ुहल पड़ता है बद-दुआ' लाख करो तुम मिरे हक़ में लोगो मेरे कामों में कहाँ इस से ख़लल पड़ता है तुम से तन्हाई में मिलने की तमन्ना है मगर मेरे हमराह मिरा साया भी चल पड़ता है तुम बड़े हो तो 'रज़ा' ज़र्फ़ समुंदर सा रखो क्यों कि तालाब तो बारिश में उबल पड़ता है