हर्फ़-ए-नैरंग समझ रंग-ए-असातीर में आ हुनर-ए-इज़्न-ए-करामत मिरी ज़ंजीर में आ मैं कि ख़्वाबीदा जज़ीरों के तआ'क़ुब में रहूँ तू कि इक बार कहीं मौजा-ए-ता'बीर में आ ख़्वाहिशें इश्क़ का ए'जाज़ नहीं होती हैं चूम कर माथा किसी ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर में आ देखा इन ताज़ा गुलाबों को नई हैरत से गुलशन-ए-जिस्म में रह हल्क़ा-ए-तस्वीर में आ वक़्फ़ कर वक़्त-ए-मुलाक़ात मुलाक़ात अंदर दश्त को दश्त समझ ख़ाक-ए-हमा-गीर में आ अक्स-दर-अक्स कोई और तमाशा-ए-जवाज़ शीशा-ए-दिल से निकल हैरत-ए-दिल-गीर में आ मसनद-ए-इश्क़ पे सुल्तानी नहीं हो सकती इज्ज़ के पाँव पकड़ फ़क़्र की जागीर में आ रौंद कर रूह किसी जिस्म का अहवाल समझ छोड़ दे अस्ल-ए-ख़ुदी बहर-ए-मज़ामीर में आ सफ़हा-ए-ख़्वाब से उठूँ मैं सुख़न की मानिंद तू किसी रोज़ मिरे लफ़्ज़ की ता'बीर में आ