हरीफ़-ए-संग हूँ मिट्टी से प्यार करता हूँ लहू से अपने गुलाबों में रंग भरता हूँ क़दम क़दम पे तिरा इंतिज़ार करता हूँ मैं ज़िंदगी के तजस्सुस में रोज़ मरता हूँ बदन के ज़ख़्म सदाक़त पे मेरी हँसते हैं जब आइने के तख़ातुब से मैं गुज़रता हूँ मिरे वजूद से क़ाएम है काएनात मगर मिटा के ख़ुद को तुझे बा-वक़ार करता हूँ न ज़ौक़-ए-सहरा-नवर्दी न अज़्म-ए-हम-सफ़री अजीब लोग हैं जिस शहर से गुज़रता हूँ फ़साद-ए-शहर ने पर्दा उठा दिया 'नश्तर' मैं रहज़नों से कहाँ रहबरों से डरता हूँ