हरीम-ए-दिल से निकल आँख के सराब में आ मिरी तरह कभी मैदान-ए-इज़्तिराब में आ पयम्बरों की ज़बानी कही सुनी हम ने वो कह रहा था कि मेरे भी इंतिख़ाब में आ सुना है आज अमारी फ़लक से उतरेगी मुझे भी नींद गर आए तो मेरे ख़्वाब में आ तुझे ख़ुदाई का दा'वा है गर तो कम से कम ज़मीन पर कोई दिन रंग-ए-बू-तुराब में आ अभी हैं सारे सवालात तिश्ना-काम मिरे उठा के काँधे पे मीना मिरे जवाब में आ उतार दी हैं भँवर में भी कश्तियाँ हम ने समुंदरों में अगर है तो इस हबाब में आ