हुसूल-ए-ग़म ब-अल्फ़ाज़-ए-दिगर कुछ और होता है दिल-ए-बर्बाद का अज़्म-ए-सफ़र कुछ और होता है तुलू-ए-सुब्ह की किरनें बहुत ही ख़ूब हैं लेकिन जमाल-ए-शहर-ए-दिल वक़्त-ए-सहर कुछ और होता है मसाइब किस को कहते हैं तुम्हीं जानो तुम्हीं समझो जहाँ वालो हमारा दिल जिगर कुछ और होता है शराब-ए-तल्ख़ क्या है ज़हर-ए-क़ातिल तक पिया हम ने मगर इन मस्त नज़रों का असर कुछ और होता है मुक़ाबिल आइने के आइना भी हम ने देखा है घटाओं में मिरा रश्क-ए-क़मर कुछ और होता है जहाँ पाबंदियाँ लाज़िम न हों सज्दा-गुज़ारों पर इबादत के लिए वो संग-ए-दर कुछ और होता है 'जलील' अक्सर ये पाया इम्तियाज़-ए-इश्क़ में हम ने इधर कुछ और होता है उधर कुछ और होता है