हरीम-ए-ज़ात के पर्दे में जुस्तुजू याराँ ज़हे-नसीब मुझे मेरी आरज़ू याराँ हवस को इश्क़ बता कर तही-कदू याराँ मय-ए-अयाग़ से छलका गए लहू याराँ शबाब है मिरे साक़ी का आफ़्ताब की लौ बदन है साज़ में दीपक की इक नुमू याराँ इसी गुनह ने मलाएक पे फ़ौक़ियत बख़्शी यही गुनह बशरिय्यत की आबरू याराँ कभी ख़िज़ाँ में कभी ख़ार-ओ-ख़स के पर्दे में चमन में बिखरे हैं हर-सम्त रंग-ओ-बू याराँ जिसे मैं ख़ुद से भी कहने की ताब ला न सका वो एक बात कही उन के रू-ब-रू याराँ वही तो जाम-ए-शिफ़ा है बला-कशों के लिए वो इक निगाह जो फिरती है चार-सू याराँ उसी ख़लिश ने उसे ख़ुद-कुशी पे उकसाया कि एक शख़्स से मिलता है हू-ब-हू याराँ ज़माना बदला है रंग-ए-चमन भी बदलेगा चिनार अब नज़र आते हैं शो'ला-रू याराँ