हरीम-ए-ज़ात की हर रुत मनाए मेरे लिए वो रोए मेरे लिए मुस्कुराए मेरे लिए ज़माना उस को हमेशा लगाए ज़ख़्म पे ज़ख़्म ज़माना उस को हमेशा सताए मेरे लिए मैं शहर छोड़ के जाने की जब भी बात करूँ वो हाथ जोड़ के मुझ को मनाए मेरे लिए उसे कहो है मोहब्बत में शिर्क कुफ़्र-ए-अज़ीम वो अपना आप भी अब भूल जाए मेरे लिए क़दम क़दम पे जलाता रहूँ लहू के चराग़ क़दम क़दम पे वो मक़्तल सजाए मेरे लिए उसी को शौक़ था सब से मुझे मिलाने का अब अपनी आँख का काजल बहाए मेरे लिए 'नईम' उस को ज़रूरत मिरी कभी न पड़े वो मिलने आए मुझे तो बस आए मेरे लिए