हँसी नसीब नहीं है ख़ुशी नसीब नहीं वो जब से रूठ गए ज़िंदगी नसीब नहीं हर एक गुल है परेशाँ हर इक कली है उदास बहार में भी उन्हें ताज़गी नसीब नहीं नज़र के सामने है उन का संग-ए-दर फिर भी मिरी जबीं को मगर बंदगी नसीब नहीं पिला रहा हूँ हज़ारों को अपने हाथों से हूँ मय-कदे में मगर मय-कशी नसीब नहीं सुकून कहते हैं किस को क़रार क्या शय है तुम्हारे बाद मुझे एक भी नसीब नहीं मैं चाहता हूँ 'शरर' तुझ को देख लूँ इक बार न जाने क्यों तिरा दीदार भी नसीब नहीं