कभी करम कभी ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब तो होगा ही मिज़ाज-ए-यार सलामत ये सब तो होगा ही किसी के घर में बिछी हो अगर सफ़-ए-मातम किसी की बज़्म में जश्न-ए-तरब तो होगा ही तुम्हारी बात हो या ज़िक्र हूर-ओ-ग़िल्माँ का बयान-ए-शाना-ओ-रुख़्सार-ओ-लब तो होगा ही अदब के नाम पे होगी जो इतनी पाबंदी तो कोई वाक़िआ' सू-ए-अदब तो होगा ही मैं इख़्तिलाफ़ न उन से कभी करूँ ऐ 'राज़' पड़े ख़ुदी पे मगर ज़र्ब तब तो होगा ही