हसीन ताज की सूरत ये बे-सदा पत्थर दिखा रहे हैं मोहब्बत का मो'जिज़ा पत्थर सुबूत-ए-संग-दिली इस से बढ़ के क्या होगा जो फूल फेंका मिरी सम्त बन गया पत्थर तुम्हारे शहर को मैं क्यूँ न कामरूप कहूँ कि इक निगाह ने मुझ को बना दिया पत्थर समझ सके न कभी मस्लहत ज़माने की बस इस क़ुसूर पे खाए हैं बारहा पत्थर करेंगे अब न गिला तुम से बेवफ़ाई का लो आज हम ने कलेजे पे रख लिया पत्थर सुना रहे हैं कहानी वफ़ा-परस्तों की सजे हुए हैं जो मक़्तल में जा-ब-जा पत्थर