तर्क इन दिनों जो यार से गुफ़्त-ओ-शुनीद है हम को मोहर्रम और रक़ीबों को ईद है शायद हमारे क़ौल पे हब्लुल-वरीद है हम से ख़ुदा क़रीब है काबा बईद है गुज़रा मह-ए-सियाम न क्यूँ पंजा-ए-शराब ख़ाली का चाँद ये नहीं है माह-ए-ईद है शुग़्ल अपना बादा-ख़्वारी है और ताक सिलसिला पीर-ए-मुग़ाँ भी एक हमारा मुरीद है दिल ले चुके हैं जान भी अब माँगते हैं वो बैठे हैं बिगड़े और तक़ाज़ा शदीद है चल खोल क़ुफ़्ल आबला-ए-पा के ऐ जुनूँ हर इक ज़बान-ए-ख़ार बयाबाँ कलीद है वहशत में पैरहन की उड़ीं धज्जियाँ तमाम तन पर क़बा-ए-दाग़ है सो नौ-ख़रीद है सुनता हूँ रोज़-ए-हश्र न होगी उसे नजात जो सय्यदों से बुग़्ज़ रखे वो यज़ीद है ऐसा मज़ा भरा है तबीअत में फ़क़्र का गंज-ए-शकर है सीना मिरा दिल फ़रीद है 'सय्याह'-ए-बे-नवा हूँ जहाँ-गर्द है लक़ब गर्दिश में चर्ख़-ए-पीर भी मेरा मुरीद है