हसरत-ए-दीद बर नहीं आती अब वो सूरत नज़र नहीं आती कोई चुटकी सी दिल में लेता है बे-सबब आँख भर नहीं आती और सब कुछ है आदमी में मगर आदमिय्यत नज़र नहीं आती काम उम्र-ए-रवाँ से ले ग़ाफ़िल ये कभी लौट कर नहीं आती जिस से मिट जाए ज़ुल्मत-ए-हस्ती कोई ऐसी सहर नहीं आती उन को अपने क़रीब पाता हूँ जब कुछ अपनी ख़बर नहीं आती एक भी चीज़ दोनों आलम की दिल से अफ़ज़ल नज़र नहीं आती रौशनी क्या है रौशनी जब तक ज़ुल्मतों से गुज़र नहीं आती उन की बातों से खुल गया ये 'बहार' बात बनती नज़र नहीं आती