हुस्न में शान-ए-किब्रियाई है वो जिधर है उधर ख़ुदाई है पी रहा हूँ निगाह-ए-साक़ी से मेरी रिंदी भी पारसाई है अब तिरे दर से जा नहीं सकता ये अता-ए-शिकस्ता-पाई है आश्ना आश्ना से बेगाना क्या ये दस्तूर-ए-आश्नाई है रास्त-गोई है एक जुर्म यहाँ हाए कैसी तिरी ख़ुदाई है कोई मुँह से कहे कहे न कहे सब हैं इक ज़ौक़-ए-ख़ुद-नुमाई है तुझ को पाया तो ये हुआ महसूस मेरी हस्ती तिरी जुदाई है भूलता ही नहीं ख़याल उन का ये अजब तर्ज़-ए-दिलरुबाई है दैर-ओ-का'बा उन्हें मुबारक हो जिन की फ़ितरत में जिब्हा-साई है रहनुमा बन के राह भूल गए वाह क्या ख़ूब रहनुमाई है