हसरत-ए-ज़ोहरा-वशाँ सर्व-क़दाँ है कि जो थी अपना सरमाया-ए-दिल याद-ए-बुताँ है कि जो थी कज-कुलाहों से भी शर्मिंदा न होने पाए हम में वो जुरअत-ए-इज़हार-ए-बयाँ है कि जो थी वज़्अ'-दारी में कोई फ़र्क़ न आया सर-ए-मू वही आवारगी-ए-कू-ए-बुताँ है कि जो थी मैं ने सरमाया-ए-दिल नज़्र-ए-बुताँ कर डाला मेरे नासेह को मगर फ़िक्र-ए-ज़ियाँ है कि जो थी मेरी आशुफ़्ता-मिज़ाजी मिरी शोरीदा-सरी अब भी मक़्बूल-ए-हसीनान-ए-जहाँ है कि जो थी 'शौक़' तक़दीर ने करवट भी न बदली अब तक ज़िंदगी अब भी वही संग-ए-गराँ है कि जो थी