हस्ती-ए-हक़ के म'आनी जो मिरा दिल समझा अपनी हस्ती को इक अंदेशा-ए-बातिल समझा वो शनावर हूँ जो हर मौज को साहिल समझा वो मुसाफ़िर हूँ जो हर गाम को मंज़िल समझा काफ़िरी सेहर न थी 'इश्क़-ए-बुताँ खेल न था ब-ख़ुदा मैं तो इसी से उसे मुश्किल समझा उतरा दरिया में प-ए-ग़ुस्ल जो वो ग़ैरत-ए-गुल शोर-ए-अमवाज को मैं शोर-ए-अनादिल समझा कुफ्र-ओ-इस्लाम की तफ़रीक़ नहीं फ़ितरत में ये वो नुक़्ता है जिसे मैं भी ब-मुश्किल समझा शैख़ ने चश्म-ए-हिक़ारत से जो देखा मुझ को ब-ख़ुदा मैं उसे अल्लाह से ग़ाफ़िल समझा न किया यार ने 'अकबर' के जुनूँ को तस्लीम मिल गई आँख तो कुछ सोच के ‘आक़िल समझा