इन दिनों यार के कुछ ज़ह्न-नशीं और भी है जानता है कि नशिस्त उन की कहीं और भी है एक दिल था सो दिया और कहाँ से लाऊँ झूठ कहिए तो मैं कह दूँ कि नहीं और भी है नाज़-ए-बे-बजा न किया कीजिए हम से इतना इसी अंदाज़ का इक यार-ए-हसीं और भी है कहियो उस ग़ैरत-ए-लैला से ये पैग़ाम सबा पहलू-ए-क़ैस में इक दश्त-नशीं और भी है मेरे बुलवाने का एहसान जताओ न बहुत मेहरबाँ एक बुत-ए-पर्दा-नशीं और भी है इन रदीफ़ों में ग़ज़ल क्यों न हो दुश्वार 'अकबर' ना-तराशीदा कोई ऐसी ज़मीं और भी है