हाथ ख़ाली सर-ए-बाज़ार लिए फिरती है रूह में सैंकड़ों आज़ार लिए फिरती है बे-ख़बर है कि नहीं हाथ में फूटी-कौड़ी माँ जिसे गोद में बीमार लिए फिरती है एक दोशीज़ा नुमाइश का सहारा ले कर कितने बे-शक्ल ख़रीदार लिए फिरती है नोच कर अपनी हया ओढ़ के चेहरे पे फ़रेब एक गुमराह सा किरदार लिए फिरती है हसरत-ओ-यास को लड़ियों में पिरो कर बुढ़िया मेरे बचपन से वही हार लिए फिरती है खुल गया राज़ सितारे हैं बग़ावत के निशाँ रात क्यूँ ख़ौफ़ के आसार लिए फिरती है ज़ब्त शेवा है ब-हर-हाल हमारा वर्ना हर ज़बाँ नोक पे तलवार लिए फिरती है