जो इंकार सर के झुकाने को है गिला हम से सारे ज़माने को है मयस्सर है हर-दिल-अज़ीज़ी उसे मुरव्वत भी उस की दिखाने को है ये क़िस्सा है दिल का न होगा तमाम अभी और कितना सुनाने को है नया इक अलमिया नई इब्तिला ख़ुदा भी हमें आज़माने को है अजब है ये वीरान सहरा यहाँ न तिनका कोई आशियाने को है हरम से भी लौटे तो 'अतहर-शकील' सफ़र उन का फिर बादा-ख़ाने को है