हाथ में गर असा नहीं होता बहर में रास्ता नहीं होता निय्यतें पाक अगर नहीं हों तो कोई सज्दा अदा नहीं होता चार नज़रें अगर नहीं होतीं दर्द-ए-दिल यूँ बढ़ा नहीं होता हार जाता अगर मैं ये बाज़ी यार मुझ से ख़फ़ा नहीं होता तुम गर अपना ज़ियाँ नहीं करते दूसरों का भला नहीं होता इश्क़ की आग गर नहीं लगती इस क़दर दिल जला नहीं होता हम सँवरने को भी तरस जाते रू-ब-रू आइना नहीं होता बेच देते ज़मीर अपना जो ज़ुल्म मुझ पर रवा नहीं होता तुम अदन में ही रहते ऐ 'सारिम' तुम से गर वो ख़फ़ा नहीं होता