हर सम्त सुलगता है ग़ुर्बत का शरर अब तक रोटी को तरसता है दुनिया में बशर अब तक तुम जितना सितम ढा लो लेकिन ये हक़ीक़त है मज़लूम की आहों में बाक़ी है असर अब तक जिस सम्त नज़र उट्ठे उस सम्त बहाराँ हो तुझ सा तो नहीं देखा अंदाज़-ए-नज़र अब तक दिन रात मोहब्बत में मरता ही रहा जिस पर उस को न मिली मेरे मरने की ख़बर अब तक जिस राह से मुड़ कर हम आए थे अजी साहिब भूले से कभी हम ने देखा न उधर अब तक तुम मेरी रिफ़ाक़त में जिस राह से गुज़रे थे मैं भूल नहीं पाया वो राहगुज़र अब तक किस तरह की बस्ती में हम आ के बसे 'सारिम' काँधे पे लिए लाशा की ज़ीस्त बसर अब तक