हाथ उस के हाथ से अब यूँ फिसलता जा रहा है जिस्म से जैसे हमारा दम निकलता जा रहा है दिल किसी का तोड़ कर उस ने बिखेरी ज़िंदगी अब जोड़ने की ज़िद में वो ख़ुद ही बिखरता जा रहा है फ़ासलों को अब मिटाने के लिए उस की ही जानिब मैं खिसकता जा रहा हूँ वो सिमटता जा रहा है रास्ते पर आग है बारिश भी है काँटे भी हैं पर अपनी धुन में वो मुसाफ़िर ख़ूब चलता जा रहा है वो सँवर कर जब निकलती है गली में तब कोई गर बोल दे उस को हमारा दिल उजड़ता जा रहा है तुम कोई शाइ'र नहीं 'फ़ाएज़' मगर ये बात भी है गुल कोई तारीक रातों में महकता रहा है