का'बा-ओ-बुत-ख़ाना वालों से जुदा बैठे हैं हम इक बुत-ए-ना-आश्ना से दिल लगा बैठे हैं हम आप से अपने को दीवाना बना बैठे हैं हम कू-ए-जानाँ छोड़ के जंगल में आ बैठे हैं हम क्यूँ मुकद्दर कर दिया नाज़ुक-मिज़ाजों का मिज़ाज कूचा-ए-जानाँ से चल जा ऐ सबा बैठे हैं हम ये दुआ का'बा में करते हैं कि उस बुत से मिला तेरे दरवाज़ा पर आ कर ऐ ख़ुदा बैठे हैं हम वो तो कहते हैं कि उठ जाएँ मेरे कूचा से आप हाए कितनी हो गई हैं बे-हया बैठे हैं हम सरगिरानी है अबस हम ख़ाकसारों से तुम्हें या तो मिटने को बसान-नक़श-ए-पा बैठे हैं हम अपना बातिन ख़ूब है ज़ाहिर से भी ऐ जान-ए-जाँ आँख के लड़ने से पहले जी लड़ा बैठे हैं हम मैं तो कहता हूँ कि बज़्म-ए-ग़ैर है याँ से उठो और वो कहते हैं मुझ से तुझ को क्या बैठे हैं हम या हमें उठवा दिया या उठ गए हैं आप वो गर कभी मज्लिस में भी पास उन के जा बैठे हैं हम बज़्म-ए-तस्वीर अपनी सोहबत हो गई है इन दिनों आश्ना दिन में भी अब ना-आश्ना बैठे हैं हम पड़ गया है हाथ जब अंगिया पे उस ख़ुश-गात की सूरत-ए-शहबाज़ चिड़िया को दबा बैठे हैं हम गुहर से उठने की नहीं बाहर नहीं रखने के पावँ यार के सर की क़सम ऐ 'मेहर' खा बैठे हैं हम