हौसले थे कभी बुलंदी पर अब फ़क़त बेबसी बुलंदी पर ख़ाक में मिल गई अना सब की चढ़ गई थी बड़ी बुलंदी पर फिर ज़मीं पर बिखर गई आ कर धूप कुछ पल रही बुलंदी पर खिल रही है तमाम ख़ुशियों में इक तुम्हारी कमी बुलंदी पर हम ज़मीं से यही समझते थे है बहुत रौशनी बुलंदी पर गिर गई हैं समाज की क़द्रें चढ़ गया आदमी बुलंदी पर ज़िंदगी देख कर हुई हैरान आ गई मौत भी बुलंदी पर मुझ से सहरा पनाह माँगे है देख वहशत मेरी बुलंदी पर हम ज़मीं पर गिरे बुलंदी से ख़ाक उड़ कर गई बुलंदी पर एक दिल पर कभी हुकूमत थी या'नी मैं था कभी बुलंदी पर खल रही है कुछ एक लोगों को मेरी मौजूदगी बुलंदी पर है ख़ुदा सामने मेरे मौजूद आ गई बंदगी बुलंदी पर