हौसले जीने के दिल को बेबसी देती रही आरज़ू पज़मुर्दगी को ताज़गी देती रही मैं ने अपने आगे उन को सर उठाने न दिया हादसों को मात मेरी सर-कशी देती रही रह गया मैं नाज़-बरदारी में उस की उम्र भर ज़िंदगी मुझ को फ़रेब-ए-ज़िंदगी देती रही ख़ून-ए-दिल देता रहा मैं शम-ए-हस्ती को सदा और ये औरों को अपनी रौशनी देती रही इक तरफ़ देती रही मुझ को अजल अपना पयाम इक तरफ़ आवाज़ मुझ को ज़िंदगी देती रही गिर पड़े क़दमों पे आ के ताज शाहों के 'ज़हीर' ये वक़ार और शान अज़्मत सादगी देती रही