हवा रह में दिए ताक़ों में मद्धम हो गए हैं महाज़ अब दूरियों के कितने मोहकम हो गए हैं हुजूम-ए-ना-शनासाँ में है इतना ही ग़नीमत ये रिश्ते अज्नबिय्यत के जो क़ाएम हो गए हैं चट्टानों से जहाँ थी गुफ़्तुगू-ए-सख़्त लाज़िम वहीं शीरीं-सुख़न लहजे मुलाएम हो गए हैं मिरे बच्चे तिरा बचपन तो मैं ने बेच डाला बुज़ुर्गी ओढ़ कर काँधे तिरे ख़म हो गए हैं अज़ाबों से टपकती ये छतें बरसों चलेंगी अभी से क्यूँ मकीं मसरूफ़-ए-मातम हो गए हैं