हवस से जिस्म को दो-चार करने वाली हवा चली हुई है गुनहगार करने वाली हवा यहीं कहीं मिरा लश्कर पड़ाव डालेगा यहीं कहीं है गिरफ़्तार करने वाली हवा तमाम सीना-सिपर पेड़ झुकने वाले हैं हवा है और निगूँ-सार करने वाली हवा पड़े हुए हैं यहाँ अब जो सर-बुरीदा चराग़ गुज़िश्ता रात थी यलग़ार करने वाली हवा हमारी ख़ाक उड़ाती फिरे है शहर-ब-शहर हमारी रूह का इंकार करने वाली हवा उसी ख़राबे में रहने की ठान बैठी है बदन का दश्त नहीं पार करने वाली हवा न जाने कौन तरफ़ ले के चल पड़े 'आज़र' धुएँ से मुझ को नुमूदार करने वाली हवा