हवा बहुत है मता-ए-सफ़र सँभाल के रख दरीदा चादर-ए-जाँ है मगर सँभाल के रख फिर उस के बा'द तो क़द्रें इन्हीं पे उट्ठेंगी कुछ और रोज़ ये दीवार-ओ-दर सँभाल के रख अभी उड़ान के सौ इम्तिहान बाक़ी हैं इन आँधियों में ज़रा बाल-ओ-पर सँभाल के रख ये अहद काँप रहा है ज़मीं के अंदर तक तू अपना हाथ भी दीवार पर सँभाल के रख पढ़ेंगे लोग इन्हीं में कहानियाँ तेरी कुछ और रोज़ ये दामान-ए-तर सँभाल के रख हवा के एक ही झोंके की देर है 'क़ैसर' किसी भी ताक़ पे शम-ए-सहर सँभाल के रख