हवा-ए-ज़ुल्म की शब भर सना-ख़्वानी भी होती है मगर दिन में चराग़ों को पशेमानी भी होती है फ़क़त आँखों के झुकने पर सुकूँ की साँस मत लेना मिरे दस्त-ए-तलब शर्मिंदा पेशानी भी होती है जो पत्थर की तरह चुप है तिरे तर्ज़-ए-तकल्लुम पर उसे अफ़्सोस भी होता है हैरानी भी होती है मुसाहिब और मुंसिफ़ तो ब-ज़ाहिर ज़ुल्म करते हैं पस-ए-पर्दा रज़ा-ए-ज़िल्ल-ए-सुब्हानी भी होती है भला लगता है दिल की बात जब जब खुल के की जाए मगर इस में शरीफ़ों को परेशानी भी होती है अँधेरों से हुआ करते हैं कुछ दर-पर्दा समझौते चराग़ों के लिए फिर मर्सिया-ख़्वानी भी होती है सुनो 'तारिक़' हम उस एहसास-ए-ना-गुफ़्तन के मारे हैं जहाँ आजिज़ ये लफ़्ज़ों की फ़रावानी भी होती है