हवा ही लौ को घटाती वही बढ़ाती है ये किस गुमान में दुनिया दिए जलाती है भटकने वालों को क्या फ़र्क़ इस से पड़ता है सफ़र में कौन सड़क किस तरफ़ को जाती है अजीब ख़ौफ़ का गुम्बद है मेरे चार-तरफ़ मिरी सदा मिरे कानों में लौट आती है वो जिस भी राह से गुज़रे जहाँ क़याम करे ज़मीं वहाँ की सितारों से भरती जाती है ये ज़िंदगी भी कहीं हो न शहरज़ाद का रूप शबाना रोज़ कहानी नई सुनाती है